धन निरंकार जी।
कहते है, मनुष्य को परमात्मा ने अपने ही रूप में बनाया है। स्वाभाविक है, मानव मात्र को प्यार करना ईश्वरीय इच्छा होगी। सभी संतो महापुरुषों ने भी इंसानों को आपस में प्यार करने का उपदेश दिया है। चाहे महापुरुष सतयुग में हुए, त्रेता में हुए, द्वापर में हुए या कलयुग में हुए। जिस तरह से एक माँ को खुश करना हो, उसका दिल जीतना हो, माँ के दिल में अपना ध्यान बनाना हो, तो माँ के बच्चे को प्यार करना पड़ता है। अगर हम बच्चे को तोह कुचल दे, ठुकरा दे, लेकिन माँ के पास जाकर कहे की तू बहुत दयालु है, कृपालु है , तेरे चेहरे पर तो बड़ा तेज़ है , जितने भी तारीफ के शब्द हम कह सकते है , लेकिन हम ये उम्मीद छोड़ दे , ये ख्याल छोड़ दे की वे खुश होगी। इसी तरह अगर हम प्रभु की ख़ुशी प्राप्त करना चाहते है , तो हमे भी सबसे प्यार करना है। प्रभु के बन्दों से जब तक प्रेम नि किया जायेगा , प्रभु को ख़ुशी नही मिलेगी। प्रभु,इश्वर इस निरंकार से जिसके नाता जुड़ जाता है, उसके जीवन में ही प्रेम का उदय होता है।
धन निरंकार जी।
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