Tuesday 12 June 2012

"MAYA"

धन निरंकार जी।
संसार का इंसान दुनिया को दिखने के लिए भले ही प्रभु का नाम लेते रहे, उसके ह्रदय में इसका वास नहीं होता , उसके दिलो दिमाग में अपनी लालसा पूरी करने की हवस ही विद्यमान होती है। नाम तो वे महापुर्ष के ले रहा होता है ,लेकिन ध्यान पदार्थों की तरफ ही होता है। उस नाम समरण से भी वे पदार्थ पाना चाहता है, दुनिया की दौलते पाना चाहता है। इस दौलत के बारे में तो कहा गया है की यह आती है तो गरूर से, अभिमान के नशे में अँधा कर देती है और जाती है तो मति को भ्रष्ट कर  देती है, इंसान को पागल कर देती है।
 इंसान को आनन्द परमात्मा के परामानंद से मिलता है। निराकार परमात्मा से दूर दुनिया भर के पदार्थ भी इसे शाश्वत आनंद नहीं दे सकते, सदा रहने वाली ख़ुशी नही दे सकते। यह मालिक निरंकार ही सारे सुखो का स्त्रोत  है। इसकी बदौलत से ही ये सारा संसार है, यह सारी  हरकते हो रही है।  जिस तरह से हम यह जानते है की हवा चलती है तो पेड़ हिलते है। अगर कोई यह कहे की पेड़ हिलने से हवा हो रही है तो यह उसका अज्ञान है।
हकीकत ये है की हवा के चलने से पेड़ हिला करते है। इस मायापति दातार के कारण ही माया की रौनाके है, माया में हरकत है। जो इस इश्वर प्रभु परमात्मा को बड़प्पन देता है,  जो इसको ही करता मान लेता है, इसकी बदौलत ही सब कुछ मानता है,वही वास्तव में ज्ञानी हुआ करता है, वही मायापति के साथ साथ माया के सुख को मांग सकता है।

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