Wednesday, 31 October 2012

"एक प्राथना "

धन निरंकार जी।

इंसान यह जानता है की जो भी इस लोक में आया है उसका अंत होना है - एक एक दिनIइसलिए अगर वह जन्मा है तो उसकी भी मृत्यु अवश्य होनी है इसीलिए शायद इसे मृत्युलोक भी कहा गया है मानव को उत्पन्न हुए सैंकड़ों / हजारों सदियाँ हुईं फिर भी वह इस विधि / इस कटु सत्य को समझ नहीं पाया है इसे आत्मसात नहीं कर पाया है यह लोक माया / स्वपन / भंवर के सामान है और मानव
उसमें डूबता ही है फंसता ही है - हमेशा कई बार सच्चाइयां / यथार्थ उसे कचोटता है अंतरात्मा, चीत्कार कर उठती है विवेक बारम्बार झंझोड़ता है की जो तुम देख रहे हो यह सत्य नहीं है यह एक स्वप्न्जाल है / माया है / मृगतृष्णा है किन्तु मानवमन अंतरद्वंद में झूलता रहता है स्वीकृति और अस्वीकृति आशा और निराशा स्वपन और यथार्थ के बीच छटपटाता है इस द्वंद से निकलने के लिए इसे स्वीकार करता है
फिर संव्य ही इसे नकार देता है वह अपने से ही यानी सत्य से दूर भागना चाहता है मुंह छिपाए आज भी साहस नहीं जुटा पाता है आईना देखने का हर सफलता में खुश हो जाता है उत्सव मनाता है असफलता से / ग़म से/ मृत्यु से होता है - निराश / दुखी / भयभीत रोते हैं लोग क्योंकि वह इसके सिवाय कुछ कर भी नहीं सकते रोना उनकी मजबूरी है  उनकी आवश्यकता है संव्य को भ्रमजाल में उलझाए रखने की वह जानता है यह कुछ भी सत्य नहीं शाशवत नहीं यह संसार धोखा है / थोथा है और यह सुख-दुःख उपज है - उसके अपने मन की शायद वह अँधेरे में पड़ी रस्सी को सर्प समझ बैठा है अपनी अपनी समझ है अपना अपना दृष्टिकोण किसी के लिए हैरोना तो किसी अन्य के लिए है - रो- इसका कारण अज्ञान......Iहे मेरे अन्तर्मन उठो/जागो अब इस दीर्घ निद्रा को तोड़ दो समय की पुकार सुनों शून्य से निकलकर परम में आओ खोजो / तलाशो / पहचानो स्वयं को खोजो अपने अन्दर तलाशो भीतर पहचानो स्वयं को स्वयं का मिलन ही सत्य का मिलन है इस अनुभूति के पश्चात् सब द्वंद, अंतरविरोध क्षीण हो जाते हैं संव्य आलोकित होवो और अज्ञान के तिमिर में दीप्त ज्ञान की रश्मि से आलोकित आनंदित कर दो सभी और प्रकाश का उल्लास हो  और हम सब इसमें समाकर एक हो जाएँ यही  कामना है यही प्रार्थना है....
धन निरंकार जी।

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